“भारतवर्ष का इतिहास स्वाभिमान,साहस और शौर्य का अकूत खजाना है और इसके प्रमाण हैं वीरान पड़े दुर्गों के भग्नावशेष जो इस समृद्धि के मूक गवाह के रूप में आज भी स्थिर हैं।”
वैसे तो समस्त भारतवर्ष का इतिहास ऐसी गाथाओं से भरा पड़ा हैं लेकिन अगर हम बुन्देलखण्ड को दृष्टिगत रखते हुए विश्लेषण करें तो ज्ञात होता हैं कि बुन्देलखण्ड की पावन धरा वीरों की वीर गाथाओं से से आपूर है जिसका शब्दांकन यहां के साहित्य में मिलता है। फिर चाहे महाराज क्षत्रशाल की बात हो या वीर हरदौल की,रानी लक्ष्मीबाई की बात हो या तात्या टोपे की। गौस खां की बात हो या माहौर बन्धुओं की।या कि मां बेतवा के तट पर बुन्देली धरा के आश्रय एवं ममत्व की छाया में रहे पं चंद्रशेखर तिवारी(आजाद)की।गढ़कुण्डार भी इसी परम्परा की एक बानगी है।
बुन्देलखण्ड की इसी परम्परा का बखान करते हुए यहां के दिवंगत साहित्यकार महाकवि अवधेश ने कभी लिखा था- “बुन्देलों की सुनो कहानी बुन्देलों की बानी में पानीदार यहां का पानी आग यहां के पानी में।”
इन महान योद्धाओं के ओज और इरादों का परिचय भगवान दास माहौर की निम्न पंक्ति देती है- “मेरे शोणित की लाली से कुछ तो लाल धरा होगी, मेरे वर्तन से परिवर्तित कुछ तो परम्परा होगी।”
वैसे तो समस्त बुंदेलखण्ड के किसी भी रियासतों,रजवाड़ों के इतिहास पर नजर डालें तो अधिकांशत: ऐसी ही कथाऐं मिलतीं है, लेकिन यहां पर हमारा केन्द्रीय विषय गढ़कुण्डार है।
गढ़कुण्डार के इतिहास एवं भौगोलिक स्थिति पर दृष्टि डालें तो यह एक गांव है जो पहाड़ी सौन्दर्य परम्परा से भरपूर है और झांसी मुख्यालय से करीब 60किलोमीटर दूरी पर स्थित है। बताते चलें कि इस गांव का नाम कुरार था परन्तु इस दुर्ग के बन जाने के कारण इसका नाम गढ़कुण्डार पड़ा।
गढ़कुण्डार की जहां तक बात है तो यहां चन्देलों का शासन रहा और ११वीं सदी तक यह इनका मुख्यालय रहा।परन्तु ११८२ में इसे चौहनों ने जीत लिया। चूंकि गुजरात के रुद्रदेव के बेटे खेतसिंह खांगर पृथ्वीराज चौहन के मित्र थे इसलिए खेतसिंह को यहां नियुक्त किया गया जिन्होंने खांगर वंश की स्थापना की जिन्होंने १२५७ तक शासन किया।१२५७ में सोहनपाल ने इसे जीता और यहां बुन्देलों का शासन हो गया जिन्होंने १५३९ तक शासन किया। यहां पर एक बात और बाते चलें कि गढ़कुण्डार में चन्देल कालीन विशाल तालाब है जिसके किनारे पर राजा सोहन पाल ने एक मन्दिर का निर्माण करवाया और इसमें मां विंद्धवासिनी देवी की प्राण प्रतिष्ठा करवाई जो गिद्ध पर विरामान है और उनको मां गिद्धवाहिनी के नाम से जाना जाता है ।जनश्रुति के अनुसार सोहन पाल ने इन्हीं देवी मां के आश्रय से इस दुर्ग पर विजय हासिल की थी ।१५३९ से १६०४ तक यह दुर्गयह वीरान रहा।बाद में १६०५ में वीरसिंह जू देव ने यहां के दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया।
गढ़कुण्डार का किला लगभग 2000 वर्ष पुराना माना जाता है जो अद्भुत स्थापत्य कला का नमूना एवं सुरक्षा की दृष्टि से बेमिशाल माना जाता है। इस दुर्ग की एक विशेषता यह भी है कि करीब 4-5 कि.मी. दूरी से तो यह स्पष्ट दिखता है,परन्तु निकट पहुंचने पर यह विलीन(दिखाई देना बन्द) हो जाता है।
यह पहाड़ी पर स्थित पंच मंजिला दुर्ग है जिसकी तीन मंजिल तो ऊपर है और दो मंजिल जमीन के अन्दर।ऐसा माना जाता है कि इन नीचे की दो मंजिलों में हीरे जवाहरात का अकूत खजाना छुपा है। वैसे स्थानीय धन लोलुप लोगों द्वारा इस खजाने तक पहुंचने के यदा कदा प्रयास भी हुए हैं,लेकिन सफलता के नाम पर मामला सिफर ही रहा। किले में अन्दर प्रवेश करने पर आपको महसूस होगा जैसे कि किसी तहखाने में बढ़ रहे हों परन्तु अन्दर यह एक विशाल अहाते में खुलता है। किले की आकृति वर्गाकार है।
यह दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। किले में बनाए गए छोटे छोटे समरूप दरवाजे इतने समरूप कि अजनबी रास्ता भटक जाए। उसे समझ ही न आ सके कि वह किस दरवाजे से अन्दर प्रवेश किया। रोशनी के लिए रोशनदानों की व्यवस्था बहुत की करीने से की गई है।
इस दुर्ग के अन्दर पानी की व्यवस्था हेतु बाऊरी है जिसमें इतनी ऊंचाई पर स्थित होने के वावजूद पानी आज भी उपलब्ध है। किले की ऊपरी मंजिल जिसे पचमढ़िया के नाम से जाना जाता है,से देखने पर पहाड़ों और जंगल का दृश्य बहुत ही मनोरम दिखाई देता है।
यहां पर यह भी बताते चलें कि इस किले का इतिहास भी राजस्थान की ही तर्ज पर जौहर परम्परा से जुड़ा है। बताते हैं कि खांगर राजा मानसिंह की पुत्री की सुन्दरता पर आसक्त होकर मोहम्मद तुगलक ने विवाह प्रस्ताव भेजा परन्तु प्रतिउत्तर में निराशा हाथ लगने पर उसने यहां पर आक्रमण कर दिया जिसके चलते अपने सतीत्व और मर्यादा रक्षा में राजकुमारी केशरदेई एवं करीब १०० दासियों सहित जौहर कर आत्मोत्सर्ग कर लिया था। ऐसे ही जौहर की कहानी विराटा की पद्मिनी की भी है जिसका उल्लेख बुन्देलखण्ड(श्यामशी) के साहित्यकार व्रन्दावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास में किया है।
चूंकि हमारे यहां इतिहास आंक्रान्ताओं के भय के परिवेश में एवं इन्हीं के आश्रय में रहने वालों द्वारा लिखा गया है जिस कारण ऐसी घटनाओं को उल्लिखित नहीं किया जा सका। हमें एहसानमन्द होना चाहिए अपनी संस्कृति की उन सुआटा, रावला,ढोला,गोटें, फाग,,,जैसी लोक श्रुति परम्पराओं का जिनके कारण इस शौर्य एवं जौहर के इतिहास को सहेजा गया और हम लोगों तक पहुचाने का काम हो सका। अन्यथा मुगल आक्रान्ताओं के इस आतताई वर्ताव का पता न चलता और उनके महिमामण्डन में हमारा शौर्य और जौहर का इतिहास नेपथ्य में विलीन हो जाता।
वर्तमान की चकाचौंध और और भागमभाग की जिंदगी ने हमारी संस्कृति की परम्पराओं के इस केन्द्रीय तत्व को पीछे छोड़ने का जो दुस्साहस किया है,यह भविष्य की भावी पीढ़ियों के लिए भारी नुकसान है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी प्रश्रय में इन परम्पराओं के पुनर्जीवन और परिवर्धन का काम हो,ताकि हम अपने मूल से जुड़े रहें।
इति।
पंडित राजू शर्मा नौटा