भारतवर्ष एक ऐसा देश है जिसकी संस्कृति अनेकानेक पर्वों से परिपूर्ण है। यह पर्व अकारण या उल्लास मात्र के साधन नहीं,अपितु अन्वर्थ( useless) हैं! कहीं न कहीं प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों से इनका एक गहरा नाता है!
हमारे प्राचीन मनीषियों ने व्यष्टि और समष्टि के पारस्परिक सम्बंध को हज़ारों/लाखों वर्ष पहले अनुभूत कर लिया था शायद! और इस आपसी संतुलन को क़ायम रखने हेतु पर्व की परम्परा क़ायम की ताकि जीवन का क्रम स्वस्थ और संतुलित बना रहे।
वैसे ज्योतिषीय गणनाएँ तो इस ओर बहुत पहले से ही इंगित करती आ रही हैं,लेकिन आज के दौर में वैज्ञानिक आँकड़ों पर गौर करके यदि विश्लेषण किया जाए तो यह बात प्रमाणित हो जाती है कि ब्रह्मांड के किसी भी तल पर घटने वाली घटना जीवन को प्रभावित करती है किसी न किसी रूप में।
सैकड़ों वर्ष के आँकड़े इस बात का प्रमाण हैं कि प्रत्येक बारह वर्ष में धरती पर कोई न कोई हलचल ज़रूर दिखाई देती है! चाहे वह किसी बीमारी के रूप में हो! युद्ध की स्थिति के रूप में हो! या कोई अन्य दैवीय आपदा! और प्रत्येक नब्बे वर्ष के अंतराल पर इसका प्रभाव अधिक प्रचंड होता है।
ऐसा माना जाता है कि इसका कारण सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों से संबंध है जो बारह वर्ष और नब्बे वर्ष के अंतराल में होते रहते हैं।
भारतीय पर्व की परम्परा की बात करें अगर तो वर्ष भर हमारी संस्कृति में अनेकानेक उत्सवों का विधान है और इनका संबंध प्रकृति के परिवर्तन से है। चाहे दिवाली हो,होली या वैसाखी पर्व।
पर्व पृ धातु से बना हुआ शब्द है जिसका अर्थ होता है तृप्तिदायक।
जब हम तृप्त होते हैं तो कहीं न कही अपने उत्स अर्थात् मूल स्रोत से जुड़ जाते हैं और अंतर्मन में आनंद का अनुभव करते है! और यही कारण है कि इन्हें उत्सव के नाम से भी जाना जाता है।
गन्ने के एक गाँठ से दूसरे गाँठ तक के भाग को भी पोर या पर्व कहा जाता है शायद उसका कारण भी यह होना चाहिए कि उसकी जो मिठास है वह एक परितोष प्रदान करती है हमको।
आज कार्तिक पूर्णिमा है और आज से कार्तिक मास का समापन हो जाएगा जो शरद पूर्णिमा से आरंभ होकर कार्तिक पूर्णिमा पर समाप्त होता है। इस पूरे महीने भर हमारे यहाँ तालाब पोखर में सुबह स्नान का विधान है जिसे हमारे यहाँ कार्तिक स्नान के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है।
लेकिन क्या कभी इस परम्परा के पीछे छिपे वैज्ञानिक विधान पर विचार किया आपने?
पृथ्वी अपने परिभ्रमण और परिक्रमण गति के कारण वर्ष में दो बार सूर्य के सबसे नज़दीक होती है। सूर्य जब दक्षिणायन होता है तो उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित होने के कारण भारतवर्ष सूर्य से दूर होता है। जिससे भूभाग शीतल रहता है।
चन्द्रमा की समीपता से उसकी स्निग्ध सौम्य किरणें फल फूलों को रस सिक्त बनाती हैं। चन्द्रमा की यह सौम्य किरणें अपने स्निग्ध बल से कहीं न कहीं पुष्टि और तृप्ति प्रदान करने का काम करती हैं!
कार्तिक मास में भारत में पूरे महीने भर ब्रह्म मुहूर्त में तालाब ,पोखर या नदी में स्नान की परम्परा है जिसके पीछे एक गहरा वैज्ञानिक कारण है!
शरद ऋतु जिसकी आहट की शुरुआत नवरात्र से हो जाती है और इस समय दिन गर्म और रातें ठण्डी होती है। वर्षा काल में शीत के अभ्यस्त शरीर को संतुलित बनाने हेतु विशेष खानपान के ख़्याल की ज़रूरत होती है इसीलिए नवरात्र में उपवास का विधान है।
कार्तिक मास में चूँकि दिन में सूर्य का ताप अधिक होता है तो जल दिन भर सूर्य के ताप से तपता है और रात्रि में चंद्रमा की निकटता से पारितोषित होकर निर्विष हो जाता है जिसे आयुर्वेद में हंसोदक कहा जाता है।
वर्षाकाल के अभ्यस्त शरीर में शीत ऋतु के कारण पित्त प्रकुपित हो जाता है जिसको संतुलित करने हेतु यह हंसोदक स्नान सहायक होता है और शायद यही कारण है इस परम्परा के पीछे।
आज के वैज्ञानिक युग में अपने को बुद्धिजीवी का तमग़ा देने वाले लोगों की एक अंतहीन श्रंखला है जो कभी वैज्ञानिकता की बात कर और कभी दक़ियानूसी परम्परा बताकर हमारी सनातन परम्पराओं का उपहास बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं लेकिन इनके तर्क उतने ही विद्वेषपूर्ण और बचकाने के साथ साथ दोहरे मापदण्ड लिए और कपटपूर्ण होते हैं।
सच्चाई यही है कि हमारी इन परम्पराओं के पीछे सुविचारित ठोस आधार हैं जो मानव कल्याण लिए हुए हैं।
किसी भी देश की संस्कृति की समृद्धि में उसके पर्व /उत्सव एक विशेष बल रखते हैं और इसमें कोई भी शक नहीं कि सनातन संस्कृति इस मामले में बेहद समृद्ध और प्रवाही परम्परा लिए हुए है,जिसका अनुपालन हम सब को एक सुखी जीवन प्रदान कर सकता है।
सो जुड़े रहिए अपनी प्राचीन परम्पराओं से।