क्या बिहार में फिर से लौट रहा है जंगल राज?

बिहार,इस देश का वह भूमि का टुकड़ा जिसकी गौरव गाथा में विदेशियों के यात्रा व्रतांत बहुतायत उपलब्ध हैं।

वहीं बिहार जिसने जेपी जैसे प्रखर व्यक्तित्व को जन्म दिया जिसकी क्रान्ति की ज्वाला में बड़े बड़े सियासती दरख़्त झुलसने को मजबूर हो गए,बड़े बड़े सिंहासनों पर भारी पड़ने वाले इस बिहारी बाबू न कोई भी राजनैतिक पद स्वीकार न करते हुए सादगी भरा जीवन जिया और इस देश के लोक मानुस के चित्त में लोकनायक की छाप छोड़ गए।

सिताबदियारा का यह लाल अपने आभा मंडल के साथ इस देश के गगन मण्डल में एक ध्रुव तारा के रूप में हमेशा के लिए दैदीप्यमान होकर अमर हो गया।

महाकवि दुष्यन्त कुमार जैसा प्रखर साहित्यकार इसी बिहार की जरखेज ज़मीन ही उपज थे।

कभी तक्षशिला और नालंदा जैसे शिक्षा के बड़े केन्द्र रहे बिहार में और आचार्य चाणक्य जैसे योग्य आचार्य ने सींचा इस जमीं को। वैभवशाली मगध साम्राज्य यहीं पनपा जिसकी सम्पन्नता की मिसाल कहीं और खोजना मुश्किल काम है।

लेकिन क्या हुआ कि आज वही बिहार बीमारू राज्य के रूप में जाना जाता है,शिक्षा का प्रतिशत न के बराबर है,ग़रीबी का आलम यह है कि देश के किसी भी शहर में खोजिए आप तो बिहार के मज़दूर ज़रूर मिल जाएँगे आपको।

जबकि हुनर की अगर बात करें तो देश के प्रबुद्ध वर्ग में आने वाले सबसे अच्छे पत्रकार जो हैं उनमें अधिकांश बिहारी ही मिलेंगे आप को।

उसी बिहार में अपराध के आँकड़ों पर गौर करें तो अव्वल दर्जे का राज्य है यह, शराबबंदी लागू है लेकिन इस राज्य का युवा शराब की खेप को उपभोक्ताओं तक पहुँचाने में खप रहा है।
प्रश्न यह है कि ऐसा सब हुआ कैसे?

किसी भी राज्य/राष्ट्र की उन्नति या बदहाली के लिए सबसे बड़ा कारक जो ज़िम्मेदार होता है वह है सियासत।
जब बिहार में लालू प्रसाद जैसे नेता का उत्थान हुआ तो उन्होंने अपनी सत्ता क़ायम रखने की ख़ातिर एम वाई समीकरण पर ज़ोर दिया और यहीं से शुरु हुआ तुष्टिकरण का ताण्डव।

बिहार की ख़ुशहाली को दरकिनार कर माफियाओं को सत्ता का संरक्षण मिला और फिर लूट और भयाक्रान्त राज्य की शक्ल ले ली वैभवशाली बिहार ने।

एक समय तो ऐसा था जब लूट,अपहरण और डकैती बिहार में उद्योग बन गए थे,लेकिन सत्ता परिवर्तन हुआ और नीतीश बाबू सरकार में आए,उनका पहला कार्यकाल काफ़ी सुधारात्मक रहा और सड़कें अच्छी होने लगी बिहार की,प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार हुए तो उन्हें सुशासन का पर्याय बताते हुए सुशासन बाबू कहा जाने लगा।

लेकिन सत्ता का लोभ और अहंकार बुरा होता है और कहावत है कि संगत असर लाती है।
जबसे सुशासन बाबू राजद के साथ गठबंधन कर मुखिया बने हैं तबसे लगता है कि बिहार में वही लालू राज लौटने को आतुर लग रहा है।
बिहार के एक स्थानीय पत्रकार मनीष कश्यप को सिर्फ़ इसलिए प्रताड़ित करने काम काम हो रहा है क्योंकि वह शासन की नाकामियाँ उजागर कर रहा था, बताया जा रहा है कि उसने तमिलनाडु में बिहार के मज़दूरों के सम्बंध में कुछ ऐसी सूचनाएँ प्रसारित की जो भ्रामक हैं सरकार की नज़र में,जबकि उसने वह बड़े अख़बारों से ली थीं।

यह भी मान लेते हैं कि कुछ भ्रामक भी था तो उसके साथ ऐसा सलूक उचित है क्या जो एक आतंकवादी की तरह से ट्रीट कर रही है पुलिस उसको,हमारे यहाँ तो अपराध सिद्ध होने तक आतंकियों को भी बिरयानी खिलाते देखा है हमने प्रशासन और सरकारों द्वारा। फिर एक पत्रकार के साथ ऐसा सलूक क्यों कि उसके खातों की जानकी सार्वजनिक की गई,उसके जातिवाचक संज्ञा के साथ।

मुझे लगता है कि इसके पीछे सरकार की नीयत वर्ग विशेष के वोट बैंक को साधने के अलावा और कुछ नहीं।

जो नेता और रवीश और अंजुम जैसे तथाकथित पत्रकार,जो बिहार से ही हैं,लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर दिन रात मोदी को कोसते हैं,उनके हलक से तो जैसे ज़ुबान ही बाहर नहीं निकल रही है।

यह स्थिति जो है वह बिहार ही नहीं पूरे देश और लोकतन्त्र के लिए शर्म की बात है सो इस पर संज्ञान लिया जाना चाहिए,कहीं ऐसा न हो कि परिस्थितियाँ बंद से बदतर हो जाएँ और बिहार लालू राज की राह पर पुनः दौड़ने लग जाए।

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