भारत के नवनिर्माण नहीं अपितु पुनर्निर्माण की जरूरत
जो लोग भी इतिहास में रुचि रखते हैं उनको इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों से आगे जाकर अन्य ऐसे लेखकों को भी पढ़ने की ज़रूरत है जो उस पर्दे के उस पार ले जाते हैं इतिहास को जिस पर्दे के पीछे कई ऐसी सच्चाइयों से सामना होता है जिन्हें इन लोगों ने या तो छिपा दिया है या फिर बहुत छोटे से चैप्टर में ऐसे समेट कर रख दिया जैसे कि डार्विन को उभारने के चक्कर में ए आर वैलास जैसे वैज्ञानिकों को एक चार्ट में समेट दिया। ओमेन्द्र रत्नु उनमें से ही एक हैं।
राणा प्रताप की प्रतापी दास्तान हल्दीघाटी के युद्ध पर समाप्त नहीं होती,वह तो शुरुआत मात्र थी। असल तस्वीर देवर के युद्ध में उभरती है जब मुग़लों की विशाल सेना हमारे राजपूत शूरवीरों की छोटी सी टुकड़ी द्वारा गाजर मूली की तरह काट डाली गई और इनमें इतने भय का संचार हुआ कि वही तथाकथित अकबर महान कभी राणा का सामना करने की हिम्मत भी न जुटा सका, अंततः राजस्थान की तरफ़ न निहारने में ही भलाई समझी इन तथाकथित मुग़ल डायनेस्टी के महान सुल्तानों ने।
अब और कई लेखक उभरकर आ रहे हैं जो आपको उस राजा भोज के बारे में भी विस्तार से बताएँगे जिन्होंने समरांगण सूत्रधार जैसे 84 ऐसे ग्रंथ लिखे जिनमें जल संग्रहण,नाट्यशास्त्र और न जाने कितने हवाई यान जैसे न जाने कितने विषयों का विवरण प्रस्तुत किया, लेकिना कि इनको इतिहास में कोई भी उचित स्थान नहीं ।
एक मुगल डायनेस्टी पर इतना बवाल?
पूछना चाहिए इन बवालियों से कि जब भारत का नव निर्माण कर रहे थे यह इतिहास लिखकर तब इन विषयों पर ध्यान क्यों नहीं गया इनका??
इतिहास मिटा देने पर जैसे ताजमहल कुतुबनीनार नहीं मिटते और यह आक्रांताओं की याद ताज़ा करते रहेंगे,ठीक वैसे ही धार, भोजपुर, रणथम्भोर और कुम्भलगढ़ जैसी जगहें हमारे योद्धाओं महान शिल्पियों को हमेशा ज़िंदा बनाए रखेंगी।
हमें अपना शौर्य बोध भी बना रहेगा और शत्रु बोध भी।
लेख- राजू शर्मा नौटा