एक मात्र मंदिर जहां पराम्बा माँ जगदम्बा का विग्रह गिद्ध पर असवार है।

गिद्धवाहिनी मैया मन्दिर का इतिहास और बुंदेला शासक-सोहनपाल से सम्बंध-

शक्ति की आराधना का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना आदिकाल में मानवों का जंगलों के खानाबदोशी जीवन का इतिहास!


हमारे देश में सदा से ही आदिशक्ति परांम्बा मां जगदम्बा को शक्तिदायिनी देवी के रूप में पूजा जाता रहा है। फिर चाहे वह बल की देवी दुर्गा हो,विद्या की देवी सरस्वती हों या कि धन की देवी लक्ष्मी हों!
शक्ति आराधना का इतिहास का अक्स ऋग्वेद से लेकर देवी भागवत,भहाभारत से लेकर वर्तमान लोक मानस के चित्त और चरित्र में आज भी मिलता है।


इसका प्रमाण ऋग्वेद के दशम मंडल के श्लोकांश अहं रुद्राय धनुरा तनोमि में मिलता है। जिसका अर्थ है मैं रुद्र के धनुष को साधती हूं। अर्थात रुद्र के धनुष की संहारक शक्ति,तन्यता के रूप में में ही मौजूद हूं!


इस जगत में जो भी शक्ति का केन्द्र है, वह मूल रूप से पराम्बा ही है,जो परा शक्ति के रूप में मौजूद है!
वैसे वेद में ईश्वर को भी मूल रूप से स्त्री ही माना गया है। वेद कहता है त्वं स्त्री।

वह एक ही शक्ति है,जो स्रजन,पालन और संहार करती है।
वैसे तो उस पराशक्ति के पूर्ण विग्रह का निवास स्थान कहीं भी नहीं है,जहां भी है अंश रूप में ही है। चाहे वैष्णों देवी हों,ज्वाला देवी हो या नैना देवी। देवी भागवत पुराण की दशवें स्कन्द की कथानुसार दक्ष के यज्ञ विध्वंस के बाद सती के शरीर के अंग जहां जहां भी गिरे,वहां एक शक्ति पीठ बन गया। लेकिन परा शक्ति के स्थाई निवास स्थान के बारे में जिस ग्रंथ में इंगित मिलता है,वह मारकण्डेय पुराण है।
इस पुराण के अनुसार विन्ध्याचल वह स्थान हैं जहां देवी मां स्थाई रूप से निवास करती हैं और ऐसा माना जाता है कि प्रलय काल के दौरान भी यह स्थान सुरक्षित रहता है!
जब भी कोई देवी की आराधना करता है तो वह मदद के लिए विभिन्न रूप रख कर प्रकट होती हैं और तत्पश्चात् विंध्याचल वापस आ जाती हैं।

हमारे देश में साध्य की पूर्ति हेतु हमेशा से ही मां की आराधना के वर्णन मिलते हैं, चाहे रामायण काल के दौरान श्री राम द्वारा लंका विजय हेतु की गई नौ दिवसीय साधना हो,महाभारत के विराट पर्व में कंक बने युधिष्ठिर की साधना हो या कि आल्हा द्वारा अपने युद्धों की विजय हेतु की गई मां शारदा की साधना हो!
हमारे देश में तो एक पूरा का पूरा सम्प्रदाय ही है जो शक्ति की साधना पर आधारित है,जिसे शाक्त सम्प्रदाय कहा जाता है!

लेकिन मैं यह सब बातें क्यों लिख रहा हूं?
क्योंकि मैं आज देवी के जिस रूप की बात कर रहा हूं उनका विग्रह गिद्ध पर सवार होने के रूप में है,जिन्हें गिद्ध वाहिनी मैया के नाम से जाना जाता है और कुछ इसी तरह की ऐतिहासिक किवदंतियों की कड़ियों को इनसे जोड़कर देखा जाता है।


इस भूमिका की कड़ियाँ जुड़ती हैं बुन्देला शासक सोहन पाल से, जिन्होंने अपनी कुल देवी विंध्यवासिनी मैया का आसरा पाकर ही 1218 में गढ़ कुण्डार के किले को जीतकर बुंदेला साम्राज्य की सल्तनत कायम की।
कालांतर में इन्हीं के वंशजों ने अपनी राजधानी ओरछा को बनाया।
सोहन पाल बुन्देला के वंशगत इतिहास की पड़ता करने पर मालूम होता है कि बुंदेला क्षत्रियों कै जो वंशव्रक्ष है,वह काशी नरेश वीरभद्र का विस्तार है!
काशी नरेश वीरभद्र की कनिष्क रानी की संतान थे जगदास, जबकि बड़ी रानी की चार संतानें थी।
कनिष्क रानी की संतान होने के कारण जगदास को राज्य में हिस्सेदारी न मिल सकी।
जगदास ने अपनी कुल देवी विंध्यवासिनी मैया की कठोर तपस्या की, परन्तु कोई प्रतिउत्तर न मिलने पर उन्होंने मां को अपना शीष अर्पित करने की खातिर कटार अपने गर्दन पर रखी ही थी कि देवी विग्रह ने प्रकट रूप में दर्शन दिये और उनसे क्षात्र धर्म का पालन करने वाली पराक्रमी सन्तानें उत्पन्न होने का वरदान दिया।

छुरी गर्दन पर लगने के कारण जगदास के रक्त की कुछ बूंदें जमीन पर गिर गई थीं! ऐसा माना जाता है कि बुंदेला शब्द की व्युत्पत्ति यहीं से हुई तथा कालांतर में जगदास के वंशज बुंदेला कहलाए।
किंवदन्ती है कि अर्जुन पाल जो जगदास के ही वंशज थे,महौनी पर शासन कर रहे थे,इनके दो पुत्र वीर पाल और सोहन पाल हुए!
सोहन पाल पराक्रमी और योग्य थे वीर पाल की तुलना में, परन्तु अग्रज होने के कारण वीर पाल को राजगद्दी दे दी गई!
सोहन पाल उद्विग्न थे इस निर्णय से!
इस बात का कोई प्रमाणिक आधार तो नहीं लेकिन लोक श्रुति के अनुसार सोहन पाल ने अपनी कुल देवी की साधना की! बताते है कि एक दिन उनको स्वप्न आया कि एक पीला गिद्ध उनका मार्ग दिग्दर्शन करेगा और जहां पर भी यह गिद्ध बैठेगा, वहां उनको अपना राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त होगी!
उनका स्वप्न साकार हुआ! सुबह उनको गिद्ध के दर्शन हुए और स्वप्न की अनुसार यह गिद्ध कुरार नामक स्थान पर जहाँ बैठा वहीं पर उन्होंने कुल देवी का आदेश समझकर गिद्ध पर असवार विंध्य वासिनी मैया की प्रतिष्ठा करवाई!
तत्पश्चात् उन्हीं के बल के आसरे सन 1288 में यहां के किले पर विजय प्राप्त कर अपना राज्य स्थापित किया!
उपरोक्त वर्णन के प्रमाणिक आधार भले न हों, लेकिन हमारी पौराणिक कथाएँ,जिनका ऊपर वर्णन किया जा चुका है, कई ऐसे व्रतांत मिलते हैं,सो इस बात को सच माना जा सकता है और माना ही जाना चाहिए।

@राजू शर्मा नौटा

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